उषाके सूक्त

पहला सूक्त

 

ऋ. 5.79

 

   [ ऋषि सत्य-ज्योतिकी उषाके निज-समस्त-अपरिमित-शोभा-सहित पूर्ण आविर्भावके लिये प्रार्थना करता है । वह अपने देवों व ऋषियोंके समस्त उदार गणोके साथ, अपने विचारके प्रकाशमय यूथोंके साथ, अपने बलके दौड़ते हुए अश्वोंके साथ, विज्ञान-सूर्यकी प्रदीप्त रश्मियोंके साथ, स्वभावत: ही अपने संगमें रहनेवाली ज्योतिर्मय प्रेरणाके साथ आविर्भूत हो, जिन सबके साथ कि वह आया करती है । उषाको आने दो, फिर

कार्य कभी लम्बा व मन्द नहीं होगा । ]

महे नो अद्य बोधयोषो राये दिवित्मती ।

यथा चिन्नो अबोधय : सत्यश्रवसि वाग्ये सुजाते अश्वसूनृते ।।

 

(उषः) हे उषा-देवि ! तू ( दिवित्मती) द्युलोककी अपनी समस्त श्रीशोभाके साथ आ और (अद्य) आज ही (न: बोधय) हमें जगा, (यथा चित्) जैसे कि तू पहले एक बार (न:) हमें ( महे राये) महान् आनन्दके प्रति, (वाय्ये) ज्ञानके जन्मके पुत्र-भावमें, ( सत्यश्रवसि1) सत्यके अंत:प्रेरित श्रवणमें (अबो-धय:) जगा चुकी है ।

 

(सुजाते) हे उषा, तेरा जन्म पूर्ण है ! (अश्वसूनृते) सत्य तेरे अश्वोंके पदचापमें ही निहित है !

या सुनीथे शौचद्रथे व्यौच्छो दुहितर्दिव: ।

सा व्युच्छ सहीयसि सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसूनृते ।।

 

(दिव: दुहित) हे द्युलोककी पुत्री ! (या) तू जो (वि औच्छ:) उस मनुष्यमें उषाके रूपमें प्रस्फुटित हो उठती है जिसे ( शौचत्-रथे2) प्रकाशके जाज्वल्यमान रथका ( सुनीथे) पूर्ण नेतृत्व प्राप्त है, उसी प्रकार ( सा) वह तू (सहीयसि)

____________

1. ऋषिका नाम, सत्यश्रव्, यहां मनुष्यमे सूर्यके जन्मके विशेष लक्षणोंका गुप्त प्रतीक है ।

2. यह भी वही रूपक है पर अन्य नामके साथ । यह सूर्यके जन्मका परिणाम दर्शाता है ।

२२०


 

उषाके सूक्त

 

हे अपनी शक्तिमें और अधिक महत्तर ! (वाय्ये) ज्ञानके जन्मके पुत्रभावमें, (सत्यश्रवसि) सत्यके अंत:प्रेरित श्रवणमें आज भी (वि उच्छ) प्रस्फुटित हो ।

(सुजाते) हे उषा, तेरा जन्म पूर्ण है! (अश्वसूनृते) सत्य तेरे अश्वोंके पदचापमें ही निहित है !

सा नो अद्याभरद्वसुर्व्युच्छा दुहितर्दिव:

यो व्यौच्छ: सहीयसि सत्यश्रवसि वाग्ये सुजाते अश्वसूनृते ।।

 

(दिव: दुहित:) हे द्युलोककी पुत्रि (आभरत्-वसु: सा) निधियोंका वहन करनेवाली वह तू (अद्य) आज ही (नः) हमारे लिये (वि उच्छ) प्रकाशके रूपमें प्रस्फुटित हो जा, (या उ) जो तू (सहीयसि) हे अपनी शक्तिमें और अघिक महत्तर ! (वाय्ये) ज्ञानके जन्मके पुत्रभावमें, (सत्यश्रवसि) सत्यके अंतःप्रेरित श्रवणमें (वि औच्छ:) पहले एक बार प्रस्फुटित हो चुकी है ।

 

(सुजाते) हे उषा, तेरा जन्म पूर्ण है ! (अश्वसूनृते) सत्य तेरे अश्वोंके पदचापमें ही निहित है !

अभि ये त्वा विभावरि स्तोमैगृणन्ति वह्नय: ।

मधैर्मघोनि सुश्रियो दामन्वन्त: सुरातय: सुजाते अश्वसूनृते ।।

 

(विभावरि) हे विशाल और भास्वर उषादेवि ! (वह्नय:) यज्ञ-हविके वाहक1 (ये) जो लोग (त्वाम्) तुझे (स्तोमै:) अपने स्तोत्रोंसे (अभिगृणन्ति) अपनी वाणीमें अभिव्यक्त करते हैं वे (मधै: सुश्रिय:) तेरे प्रचुर ऐश्वर्यसे यशस्वी हैं (मघोनि) हे राज्ञि, (दामन्वन्त:) उनके उपहार उदारतापूर्ण हैं, (सुरातय:) उन्हें प्रान्त वरदान परिपूर्ण हैं ।

 

(सुजाते) हे उषा, तेरा जन्म पूर्ण है ! (अश्वसूनृते) सत्य तेरे अश्वोंके पद-चापमें ही निहित है !

यच्चिद्धि ते गणा इमे छदयन्ति मधत्तये ।

परि चिद्वष्टयो दधुर्ददतो राधो अह्रयं सुजाते अश्वसूनृते ।।

____________ 

 1. मानवीय पुरोहित नहीं अपितु दिव्यशक्तियाँ, उषाके गण या दल, 'गणा:',

    जो एक साथ ही आन्तर यज्ञके पुरोहित, द्रष्टा और संरक्षक हैं तथा दिव्य

    ऐश्वर्यके विजेता और दाता भी हैं ।

२२१


(यत् चित् हि) जब (ते इमे गणा:) तेरे देवोंके ये गण (मघत्तये छदयन्ति) तेरे प्रचुर ऐश्वर्योंकी आशामें तुझे प्रसन्न करना चाहते हैं तब वे (वष्टय: चित् परिदधु:) अपनी अभिलाषाओंको चारों ओर प्रतिष्ठित करते है, (अह्रयं राध: ददत:) तेरे अविचल आनंदैश्वर्यका मुक्तहस्तसे दान करते हैं ।

 

(सुजाते) हे उषा, तेरा जन्म पूर्ण है । (अश्वसूनृते) सत्य तेरे अश्वोंके पदचापमें ही निहित है !

ऐषु धा वीरवद्यश उषो मघोनि सूरिषु ।

ये नो राधांस्यहह्रया मघवानो अरासत सुजाते अश्वसूनृते ।।

 

(उषः) हे उषा-देवि ! (मघोनि) हे प्रचुर ऐश्वर्यकी राज्ञि ! (एषु सूरिबू) अपने इन द्रष्टाओंमें (वीरवत् यश:) अपनी वीरतापूर्ण शक्तियोंके तेजोमय यशको (आ धा:) निहित कर । (ये मघवान:) जो तेरे प्रचुर ऐश्वर्यके अधिपति हैं वे (न:) हमें (अह्रया राधांसि) तेरे अविचल आनंद-ऐश्वर्यका (अरासत) मुक्तहस्तसे दान करें ।

 

(सुजाते) हे उषा, तेरा जन्म पूर्ण है ! (अश्वसूनृते) सत्य तेरे अश्वोंके पदचापमें ही निहित है !

तेम्यो द्युम्नं बृहद्यश उषो मघोन्या वह ।

ये नो राधांस्यश्व्या गच्चा भजन्त सूरय: सुजाते अश्वसूनृते ।।

 

(उषः) हे उषा-देवि ! (मघोनि) हे प्रचुर ऐश्वर्यकी रानी ! (तेभ्य:) उन द्रष्टाओंके लिये (द्युम्नं) अपनी दीप्ति और (बृहत् यश:) विशाल यश (आ वह) ले आ, (ये सूरय:) जो द्रष्टा (नः) हमें (अश्व्या राधांसि) तेरे अश्वोंके आनन्दका और (गव्या राधांसि) तेरे गोयूथोंके आनन्दका (भजन्त) आस्वादन प्रदान करें ।

 

(सुजाते) हे उषा, तेरा जन्म पूर्ण है ! (अश्वसूनृते) सत्य तेरे अश्वोंके पदचापमें ही निहित है !

उत नो गोमतीरिष आ बहा दुहितर्दिव: ।

साकं सूर्यस्य रश्मिभि: शुक्रै: शोचद्धिरर्चिभि: सुजाते अश्वसूनृते ।।

 

(दिव: दुहित) हे द्युलोककी पुत्रि ! तू (गोमती: इषः उत) अपने प्रकाशके पंजसे भरी हुई प्रेरणाकी शक्तियोंको भी (न: आ वह) हमारे लिए ले आ ।

२२२


 

उषाके सूक्त

 

(सूर्यस्य रश्मिभि: सकं) अपने सूर्यकी उन रश्मियोंके संग उन्हें आने दो जो उसके ( शुक्रै: शोचद्धि: अर्चिभि:) शुभ्र, जाज्वल्यमान प्रकाशके दानोंकी निर्मलतासे युक्त हैं ।

 

(सुजाते) हे उषा, तेरा जन्म पूर्ण है! ( अश्वसूनृते) सत्य तेरे अश्वोंके पदचापमें ही निहित है !

व्युच्छा दुहितर्दिवो मा चिरं तनुथा अप: ।

नेत्त्व स्तेनं यथा रिपु तपाति सूरों अर्चिषा सुजाते अश्वसूनृते ।।

 

(दिव: दुहित:) हे द्यौकी पुत्रि ! तू (वि उच्छ) प्रकाशके रूपंमें प्रस्फुटित हो, (अप: चिरं मा तनुथा:) कार्यको बहुत लम्बा मत फैला क्योंकि  (सूर:) सूर्य (अर्चिषा) अमनी प्रदीप्त किरणोंसे ( त्वा न इत् तपाति) तुझे संतप्त नहीं करता, (यथा) जैसे वह ( स्तेनं) चोरको और ( रिपुं) शत्रुको तपाता है1

 

(सुजाते) हे उषा, तेरा जन्म पूर्ण है ! ( अश्वसूनृते) सत्य तेरे अश्वोंके पदचापमें ही निहित है !

१०

एतावद्वेदुषस्त्वं भूयो वा दातुमर्हसि ।

या स्तोतृभ्यो विभावर्युछन्ती न प्रमीयसे सुजाते अश्वसून्ते ।।

 

(उषः) हे उषा-देवि । ( त्वं) तू ( एतावत् वा इत् दातुम् अर्हसि) इतना दे (वा) अथवा ( भूय: दातुम् अर्हसी) इससे अधिक भी दे, ( या) जो तू [ क्योंकि तू ]  ( स्तोतृम्य:) अपने स्तोताओंके प्रति (विभावरि) अपने वैभवोंके पूर्ण विस्तारमें प्रस्फुटित होती है, ( उच्छन्ती न प्रमीयसे) अपने उदयमें तू सीमित नहीं होती ।

 

(सुजाते) हे उषा, तेरा जन्म पूर्ण है! ( अश्वसूनृते) सत्य तेरे अश्वोंके पदचापमें ही निहित है !

__________

1. सत्यकी सत्ताकी ओर प्रयास लम्बा और दूभर होता है क्योंकि अन्धकार

  और विभाजनकी शक्तियाँ, हमारी सत्ताकी निम्नतर शक्तियाँ ज्ञानकी उपलब्धियों-

  पर अपना स्वत्व और अधिकार जमा लेती हैं, वे उन्हें या तो निरर्थक पड़े रहने

  देती हैं या उनका दुरुपयोग करती हैं । वे यज्ञ-हविकी वाहक नहीं वरन् उसे

  विकृत करनेवाली हैं । वे सूर्यकी पूर्ण रश्मिसे आहत होती हैं । परन्तु

  ज्ञानकी यह उषा पूर्ण ज्योतिको सहन कर सकती है और महान् कार्यको द्रुत

  वेग से समाप्त करा सकती है ।

२२३


दूसरा सूक्त

 

ऋ 5.180

 

    [ ऋषि द्युलोककी पुत्री दिव्य उषाकी इस रूपमें स्तुति करता है कि वह सत्य एवं आनन्दको और प्रकाशपूर्ण द्युलोकोंको लानेवाली है, प्रकाशकी स्रष्ट्री है, अन्तर्दृष्टिकी दात्री है, सत्यके मार्गोंकी निर्मात्री, अनुगामिनी और नेत्री है, अन्धकारको मिटानेवाली है एवं भगवान्की ओर हमारी यात्रामें शाश्वत तथा नित्य-युवती इष्टदेवी है । ]

 

द्युद्यामानं बृहतीमृतेन ऋतावरीमरुणप्सुं विभातीम् ।

देवीमुषसं स्वरावहन्तीं प्रति विप्रासो मतिभिर्जरन्ते ।।

 

(द्युतत्-यामानं) प्रकाशमय यात्राकी उषाकी, (ऋतावरीं) सत्यकी रानी और (ऋतेन बृहतीं) सत्यसे विशाल उषाकी, (अरुणप्सुं विभातीं) जिसके गुलाबी अंगोंसे छिटकनेवाली प्रभा कितनी ही विशाल है ऐसी उषाकी, (स्वर् आवहन्तीं देवीम् उषसम्) अपने साथ प्रकाशमय द्युलोकको लानेवाली भगवती उषाकी (विप्रास:) द्रष्टा लोग (मतिभि:) अपने विचारोंसे (प्रति जरन्ते) स्तुति करते हैं ।

पूषा जनं दर्शता बोधयन्ती सुगान्पथ: कृण्वती यात्यग्रे ।

बृहद्रथा बृहती विश्वमिन्वोषा ज्योतिर्यच्छत्यग्रे अह्नाम् ।।

 

(एषा) यही है वह उषा जो (दर्शता) अन्तर्दर्शनसे संपन्न है । वही (जनं बोधयन्ती) जन-जनको जागृत करती है, (पथ: सुगान् कृण्वती) उसके मार्गोको यात्रा करनेके लिए सुगम बनाती है और (अग्रे याति) उसके आगे-आगे चलती है । (बृहद्रथा) कितना विशाल है उसका रथ ! (बृहती विश्वम्-इन्वा) कितनी विशाल और सर्वव्यापक है वह देवी ! (उषा: अह्नाम् अग्रे ज्योति: यच्छति) अहो कैसे वह दिनोंके आगे-आगे ज्योति लाती है  !

एषा गोभिररुणेभिर्युजानाऽस्रेधन्ती रयिमप्रायु चक्रे ।

पथो रदन्ती सुविताय देवी पुरुष्टुता विश्ववारा वि भाति ।।

२२४


(एषा) यही है वह उषा जो (अरुणेभि: गोभि: युजाना) गुलाबी प्रकाशकी अपनी गौओंको जोतती है । (अस्रेधन्ती) उसकी यात्रा कभी विफल नहीं होती और (अप्रायु रयिं चक्रे) वह जिस निधिको बनाती है वह कभी नष्ट नहीं होती । (सुविताय पथ: रदन्ती) वह आनन्दके लिए हमारे मार्गोंको काटकर बनाती है । (देवी) बह दिव्य है, (वि भाति) अत्यन्त भास्वर है उसकी प्रभा ! (पुरु-स्तुता) अनेकानेक स्तोत्र उसकी ओर उठते हैं, (विश्व-वारा) वह अपने साथ प्रत्येक वर लाती है ।

एषा व्येनी भवति द्विबर्हा आविष्कृण्वाना तन्वं पुरस्तात् ।

ऋतस्थ पन्थामन्वेति साधु प्रजानतीव न दिशो मिनाति ।।

 

(द्बिबर्हा) पृथ्वी और द्युलोककी उसकी द्वयात्मक शक्तिमें उसे देखो, (एषा वि-एनी भवति) किस प्रकार वह अपनी शुभ्रतामें प्रकट होती है और (तन्वं पुरस्तात् आविष्कृण्वाना) अपने शरीरको हमारे सामने खोल देती है ! (प्रजानती इव) एक ऐसे व्यक्तिकी तरह जो बुद्धिमान् और ज्ञानी है वह (ऋतस्य पन्थां साधु अन्वेति) सत्यके मार्गका पूरी तरह अनुसरण करती है और (दिश: न मिनाति) हमारे क्षेत्रोंमें कोई बाधा नहीं डालती ।

एषा शुभ्रा न तन्वो विदानोर्ध्वेब स्वाती दृशये नो अस्थात् ।

अप द्वेषो बाधमाना तमांस्युषा दिवो दुहिता ज्योंतिषागात् ।।

 

देखो, (एषा शुभ्रा तन्व: न) कैसा भास्वर होता है उसका शरीर जब उसे (विदाना) पा और जान लिया जाता है ! किस प्रकार वह (स्नाती) प्रकाशमें नहाती हुई-सी (ऊर्ध्वा इव अस्थात्) ऊर्ध्वमें स्थित है ताकि (न: दृशये) हम अन्तर्दर्शन प्राप्त कर सकें । (द्वेष: तमांसि) समस्त शत्रुओं और सम्पूर्ण अन्धकारको (अप बाधमाना) दूर भगाती हुई (दिव: दुहिता उषा:) द्युलोककी पुत्री उषा (ज्योतिषा आ अगात) प्रकाशके साथ आ गई है ।

एषा प्रतीची दुहिता दिवो नून्योषेव भद्रा नि रिणीते अप्स: ।

व्यूर्ण्वती दाशुषे वार्याणि पुनर्ज्योतिर्युवति: पूर्वथाक: ।।

 

देखो, (भद्रा योषा इव) हूर्षसे परिपूर्ण स्त्रीकी तरह (दिव: एषा दुहिता) द्युलोककी यह पुत्री (नून् प्रतीची) देवोंसे मिलनेके लिए उनकी ओर

२२५


गति करती है और (अप्स: नि रिणीते) उसका रूप सदा उनके अधिकाधिक निकट पहुँचता जाता है । (दाशुषे) ज्ञहविके दाताके लिए (वार्याणि) समस्त आशीर्वादोंको (वि-ऊर्ण्वती) अनातृत करती हुई (युवति:) उस नित्य-युवती देवीने (पुन:) एक बार फिर (ज्योति: अक:) प्रकाशका सर्जन किया है जैसे उसने (पूर्वथा) आदिकालमें किया था ।

२२६